अभिव्यक्ति की आजादी

"कला जानते हो ?"
कैनवास में
तूलिका से आडी तिरछी रेखाओं
के बीच
नारी जननांगों
को उकेरते हुए
उसने मुझसे कहा.

आधे कटे सेव
और
एक जोडी पपीते
के त्रिभुज
से विस्‍तृत
देह
के चित्र में
मैं, कला खोजने लगा.


पत्थरों में उकेरी प्रतिमायें
स्मृति में
धुऑं धुऑं अस्पष्ट.

"अभिव्यक्ति की आजादी
चाहने वाले लोग
देश की पुलाव में
कंकड की तरह .."

कला ना सहीं
पुलाव खाते हुए
मैं कंकड का
दुख जानता हूँ
खाने में कंकड अच्छे नही लगते.

संजीव तिवारी
(गुगल से साभार विभिन्‍न चित्रों का कोलाज )
Share on Google Plus

About 36solutions

7 टिप्पणियाँ:

  1. कला ना सहीं
    पुलाव खाते हुए
    मैं कंकड का
    दुख जानता हूँ
    खाने में कंकड अच्छे नही लगते.


    -बहुत उम्दा!

    ReplyDelete
  2. ऐसे कंकड़ों को चुनकर निकालकर फेंकना ही अच्छा.

    ReplyDelete
  3. ऐसे कंकड़ों को चुनकर निकालकर फेंकना ही अच्छा.
    बहुत उम्दा.

    ReplyDelete
  4. संजीव जी आपकी पहली कविता पढी है मैंने, जबरदस्त और प्रहारक। बधाई स्वीकारें। कला और काला के बीच का अंतर स्पष्ट करती रचना।

    ReplyDelete
  5. क्या बात है , बेहतरीन लगी आपकी कविता ।

    ReplyDelete
  6. बहुत अच्छे बंधु........
    amitraghat.blogspot.com

    ReplyDelete
  7. Badi gahari baat kahi aapane is rachana ke madhyam se...!!

    ReplyDelete

.............

संगी-साथी