"कला जानते हो ?"
कैनवास में
तूलिका से आडी तिरछी रेखाओं
के बीच
नारी जननांगों
को उकेरते हुए
उसने मुझसे कहा.
आधे कटे सेव
और
एक जोडी पपीते
के त्रिभुज
से विस्तृत
देह
के चित्र में
मैं, कला खोजने लगा.
पत्थरों में उकेरी प्रतिमायें
स्मृति में
धुऑं धुऑं अस्पष्ट.
"अभिव्यक्ति की आजादी
चाहने वाले लोग
देश की पुलाव में
कंकड की तरह .."
कला ना सहीं
पुलाव खाते हुए
मैं कंकड का
दुख जानता हूँ
खाने में कंकड अच्छे नही लगते.
संजीव तिवारी
(गुगल से साभार विभिन्न चित्रों का कोलाज )
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कला ना सहीं
ReplyDeleteपुलाव खाते हुए
मैं कंकड का
दुख जानता हूँ
खाने में कंकड अच्छे नही लगते.
-बहुत उम्दा!
ऐसे कंकड़ों को चुनकर निकालकर फेंकना ही अच्छा.
ReplyDeleteऐसे कंकड़ों को चुनकर निकालकर फेंकना ही अच्छा.
ReplyDeleteबहुत उम्दा.
संजीव जी आपकी पहली कविता पढी है मैंने, जबरदस्त और प्रहारक। बधाई स्वीकारें। कला और काला के बीच का अंतर स्पष्ट करती रचना।
ReplyDeleteक्या बात है , बेहतरीन लगी आपकी कविता ।
ReplyDeleteबहुत अच्छे बंधु........
ReplyDeleteamitraghat.blogspot.com
Badi gahari baat kahi aapane is rachana ke madhyam se...!!
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