लंबे प्रवास से लौटने के बाद जो सबसे सुखद खबर मिली वो ये थी कि नारायणपुर जिले के नारायणपुर ब्लाक से मात्र ५ किलोमीटर पर बसे गांव बिंजली में पहुंचमार्ग पक्का बन गया है, क्योंकि सरकार वहां पहुंची। तुम्हारे माध्यम से 'सरजी’ को धन्यवाद। नारायणपुर से ऐड़का-धनोरा होते हुए केशकाल मात्र १०५ किलोमीटर दूर जबकि नारायणपुर से अंतागढ़-भानुप्रतापपुर से कांकेर होते हुए केशकाल १५५ कि.मी. यानी १६ लीटर डीजल कुल ६४० रुपए का। दूसरा मार्ग नारायणपुर से कोंडागांव होते हुए केशकाल ११० कि.मी. ११ लीटर डीजल ४४० रुपए। ये मार्ग ठीक है मात्र ५ कि.मी. …यादा परंतु उस मार्ग के बन जाने से अंदर के गांव जो मैंने एक नक्शे के माध्यम से दर्शाए हैं नारायणपुर जिला मुख्यालय और रास्ते के बनने से ढेरों लाभ हैं। बाजार, शिक्षा, स्वास्थ्य, पर्यटन के अलावा दिलों की दूरियां भी कम होंगी। इस पूरे क्षेत्र में पक्की सड़कों का होना जरूरी है। सिर्फ इच्छाशक्ति और ईमानदारी की जरूरत है। भानुप्रतापपुर से अंतागढ़ की सड़क इतनी बेहतरीन चौड़ी और शानदार है कि इस पर जाते समय हमेशा लगता है कि सफर खत्म ही न हो, सड़क के दोनों किनारों पर साल का बहुत सुंदर जंगल है। एक खूबसूरत नदी जिसका नाम है मेढ़की। बहुत पूछा- किन्तु कोई नहीं बता पाया कि इस नदी को ये नाम क्यों मिला। ये पूरा इलाका न केवल दर्शनीय है वरनसंसाधनों से भरपूर भी है।
आज अच्छी बातें करने का मन कर रहा है। अंतागढ़ से नारायणपुर तक का पूरा इलाका शासन के नक्शं में बहुत संवेदनशील माना जाता है और इतिहास में भी। ताड़ोकी से राजा कालेन्द्र ने अंग्रेजों के खिलाफ विद्रोह का बिगुल फूंका था और यही पैदा हुआ था जननायक गुंडाधुर। इसी गांव बिंजली में १९३२ में आए थे प्रसिद्ध मानव शास्त्री वेरियर एल्विन। आज भी बिंजली स्थित हाईस्कूल में उनके हाथों से लगाया गया आम का विशाल पेड़ तन कर खड़ा है, जिसे लोग प्यार से 'साहब भरका’ (साहब का आम पेड़) कह कर बुलाते हैं। पता नहीं अपने प्रवास के दौरान 'सरजी’ ने वो पेड़ देखा या नहीं।
इसी गांव में एल्विन लंबे समय तक रहे थे और आदिवासी जनजीवन का गहन अध्ययन
कर कुछ विश्व प्रसिद्ध किताबें लिखीं थीं, जिनका अब हिंदी में अनुवाद भी उपलब्ध है। नारायणपुर के प्रसिद्ध मेले की तो आज भी चर्चा होती है परंतु अब पूरी तरह से चौपट हो गया है। यहीं बनेगी बहुचर्चित रावघाट रेल लाइन, जिसे अब हरी झंडी मिल गई है, लाल झंडों के हामी भरने से। क्षेत्र का विकास होना चाहिए। संसाधनों का दोहन भी परंतु स्थानीय लोगों की भावनाओं और सम्मान का पूरा ख्याल रखते हुए उन्हें मुख्यधारा में लाने से पहले उनकी तैयारी जरूरी है और इसके हजारों विकल्प हैं सिर्फ उन्हें बेदखल करना नहीं। आज इस पूरे इलाके में शिक्षा, कृषि और रोजगार के नये आयामों के प्रति लोगों में न केवल जानने-सीखने की ललक है वरना लगातार वो प्रयासरत हैं।
बताओं कौन नहीं चाहता सुख-शांति और समृद्धि भरा जीवन? इसलिए जब हम गांवों में बैठते हैं तो उनकी उर्जा व हसरतें देख-सुन दंग रह जाते हैं, बिंजली गांव का एक युवा आदिवासी लड़का जगदलपुर में इंजीनियरिंग की पढ़ाई कर रहा है। आदिवासी समुदाय भी अब शिक्षा के महत्व को समझ गया है परंतु आज भी जानकारियों का अभाव है, इसके लिए पूरा प्रशासकीय तंत्र जिम्मेदार है, हम सब कुछ क्यों छुपाना चाहते हैं और किससे, क्यों हम इतना महसूस करते हैं? इन सारे सवालों के जवाब स्वयं हमारे पास हैं परंतु हम अपने आप से ही सवाल करने से डरते हैं, इसलिए कभी-कभी लगता है कि लोगों की संवेदना को जगाना भी एक सामूहिक जिम्मेदारी है और हमारे जैसे लोग नाउम्मीद नहीं होते। बस्तर के प्रति प्रदेश के लोगों को संवेदनशील होना ही पड़ेगा और इसके हजारों तरीके हैं।
उसमें से एक तरीका है मैं लिख रही हूं। और तुम छाप रहे हो। चालीस-पचास साल पहले जिस तह से हम प्रकृति को बनते हुए देख सकते थे, वैसे ही आज रावघाट और कांगेरघाटी में देख सकते हैं। चारों तरफ नीलाभ लौह अयस्क के पहाड़ जिन पर लगे साल वन ने भी लोहे की प्रचुरता के कारण अलग रंग धारण कर लिया है पास में अनवरत बहने वाला जल स्त्रोत जिसका ठंडा पानी पीते ही लगता है किसी ने लोहे का शर्बत पिला दिया है, चारों तरफ ऐसी वनस्पतियां जिन्हें पहली बार देखा था और बाहर की दुनिया में उनकी (वनस्पतियों) रिश्तेदारियां तलाश रही थी कि हमारे पथ प्रदर्शक ने बताया गत चुनाव के दौरान यहां चार माओवादियों को लाकर पुलिस ने गोली मार दी, बस मन तिक्क हो गया कहीं पुलिस ने मारा, कहीं माओवादियों ने, लगने लगा फिर मेरे चारों तरफ रक्त की गंध हवा में घुल गई है। बस्तर की समृद्धि ही उसके लिए अभिशाप बन गई है शायद ये उसके जन्म के साथ ही जुड़ा है। अस्सी-नब्बे बरस के बीजू ने एक दिन बातों ही बातों में बताया कि वो बचपन में ही अनाथ हो गया था।
इधर-उधर भटकता वो इस गांव में आ गया (आज भी जहां वो रह रहा है) इसी गांव से थोड़े आगे न नदी से थोड़ा पहले अंग्रेजों ने अपना एक डेरा बनाया था, उनके साथ फौज की पूरी एक टुकड़ी थी। अंग्रेज उसे पकड़कर इस कैंप में साफ-सफाई करने व बर्तन आदि धोने के लिए ले गए, बीजू उस समय महज तेरह-चौदह साल का था। एक तो बेरोजगार ऊपर से लड़कपन और गोरों को पास से देखने का शौक बीजू इस कैंप में काफी दिनों तक टिका रहा। इस कैंप में एक युवा अंग्रेज था जो सबसे रौबीला व सजीला था पर थोड़ा
सनकी। उसकी शादी होने वाली थी और उसने अपनी होने वाली वधू से वादा किया था कि वो शादी में शेर की खाल से बना कोट और पैंट पहनेगा।
बीजू दुखी होकर बताता है कि उसकी इस सनक के कारण कई शेर मारे गए और उनकी खाल यहीं तैय्यार की गई। उस अंग्रेज ने शादी में शेर की खाल से तैयार किया गया लिबास पहना, शादी के बाद वो अपनी 'मेम’ को लेकर आया। यह पूछने पर कैसी थी? इतने सालों बाद भी बीजू उसे (मेम) याद कर शरारत से मुस्कुराने लगता है परंतु वो यह भी कहने से चूकता नहीं कि अंग्रेज बहुत कठोर और लुटेरे थे। उसका कहना है कि उसी समय से जंगल कटना शुरू हुआ और वन्य जीवों को मारा गया। बीजू बताता है कि वो लोग (आदिवासी) उन्हीं शेरों को मारा करते जो पालतू जानवरों या मनुष्यों पर हमला करते। बीजू कहता है कि वो (शेर) अपना चारा खाता है। इस पूरे क्षेत्र में बीजू जैसे गिने-चुने ही लोग बचे हैं जिनकी यादों में समृद्ध बस्तर बसा है।
बस्तर तो आज भी समृद्ध है, हम ही लालची और कंगाल हो गए हैं, हमारी क्षुधा ही अंतहीन हो गई है, इस क्षुधा पर कठोरता के साथ नियंत्रण जरूरी है। बस्तर के विधायकों व सांसदों को सही तरीके से जनता के प्रतिनिधि होने की जिम्मेदारी निभाना चाहिए, इतना तो वो लोग कर ही सकते हैं कि यहां जो भी विकास कार्य चल रहे हैं उनकी सतत् निगरानी व समीक्षा करें भ्रष्ट व चाटुकार और बरसों से यहां जमें अफसरों की ससम्मान बिदाई करें। माओवादियों की आड़ लेकर जो कर्मचारी, ठेकेदार भ्रष्टाचार व कामचोरी कर रहे हैं उनसे सख्ती से व्यवहार करें। पंचायत चुनाव के बाद जो छुटभैय्ये नेता वसूली करते घूम रहे हैं उनके लिए तरीके से व सम्मानजनक ढंग से रोजी-रोटी की व्यवस्था कर दें, क्योंकि पंच-सरपंचों से ऐसी लगातार शिकायतें मिलती है, जनता भी लगातार समझदार होते जा रही है, दोनों तरफ से बंदूक की सुरक्षा लेकर लोकतंत्र को बचाया नहीं जा सकता।
आशा शुक्ला
(लेखिका लंबे समय से छत्तीसगढ़ में पत्रकार के रुप में काम कर चुकी हैं। इन दिनों कांकेर में रहकर वे सामाजिक क्षेत्रों में काम कर रही हैं)
आलेख छत्तीसगढ़ से एवं फोटो रूपेश वर्मा जी से साभार
आशा जी का आलेख पढ़ कर अच्छा लगा। इतनी निष्पक्षता और साफ़गोई किसी ब्लॉगर में नहीं दिखती।
ReplyDeleteआशाजी को छत्तीसगढ़ में पहले भी पढ़ चुका हूं। ..और उनका प्रशंसक भी हूं।
ReplyDeleteबेहतरीन लेख है। पर सरजी तक बात जाए तो ज्यादा अच्छा होगा।
हम ये समझ रहे हैं कि आप कह रही हैं कि बस्तर की संसाधनगत समृद्धि उसका अभिशाप बन गई है ... गलत समझे हों तो बता दीजियेगा !
ReplyDeleteअच्छा आलेख है ! उचित समझिये तो कालिंद्र सिंह को राजा के बजाये दीवान लिख दीजियेगा !
सादर !