अरुंधति से सहमत असहमत : कनक तिवारी

बूकर पुरस्कार विजेता सुप्रसिद्ध लेखिका अरुंधति राय अपने एक विवादास्पद भाषण की गलत रिपोर्टिंग के कारण फिर सुर्खियों में हैं। नक्सलवाद को लेकर उनकी जानकारियां, सूचनाएं और घुमक्कड़ी सर्वज्ञात हैं। वे लगातार आदिवासियों के सुख-दुख से जुड़कर संघर्ष करती रहती हैं। शंकर गुहा नियोगी जैसे लोकप्रिय श्रमिक नेता की याद में अरुंधति छत्तीसगढ़ भी आती रही हैं। उन्होंनें एक मामले में अदालत की अवमानना का खतरा उठाकर सुप्रीम कोर्ट से दो टूक लिखा पढ़ी भी की थी और उन्हें जेल तक की सजा हुई थी। मैंने खुद इस सम्बन्ध में एक लेख उनके समर्थन में लिखा था। उस सिलसिले में अरुंधति का पक्ष भारतीय न्यायपालिका के पारंपरिक रूढ़ सिद्धांतों को इस कदर चुनौती देता हुआ था कि उनकी सजा को लेकर विश्व के शीर्ष चिंतकों और नोबेल पुरस्कार विजेताओं ने भी अदालत से अरुंधति के पक्ष में अपील की थी। इन विख्यात विचारकों में नॉम चॉम्स्की भी शामिल थे।

बस्तर में नक्सलवाद को लेकर लिखी अपनी किताब 'लाल क्रांति बनाम ग्रीन हंट’ के अंतिम कवर पेज पर मैंने अनुमति लेकर अरुंधति राय का वाक्यांश भी छापा है जो उनके उस लेख का हिस्सा है जो मेरी किताब के परिशिष्ट में शामिल है। 'अगर आदिवासियों ने आज हथियार उठा लिये हैं तो इसलिए, क्योंकि एक ऐसी सरकार, जिसने इन्हें हिंसा और उपेक्षा के अलावा और कुछ नहीं दिया, अब इनकी आखिरी अमानत को छीन लेना चाहती है-इनकी जमीन। जाहिर है, जब सरकार कहती है कि वह उनके क्षेत्र का विकास करना चाह रही है, तो वे इस बात पर विश्वास नहीं करते। वे नहीं मानते कि दंतेवाड़ा में राष्ट्रीय खनिज विकास निगम द्वारा बनवाई जा रही एक हवाई पट्टी जितनी चौड़ी है, सड़क उनके बच्‍चों के स्कूल जाने के लिए है। उन्हें लगता है कि अगर उन्होंनें अपनी जमीन की लड़ाई नहीं लड़ी, तो वे ध्‍वस्त हो जाएंगे और इसीलिए उन्होंनें हथियार उठा लिये हैं। आज भले ही ऑपरेशन ग्रीनहंट पर सबकी निगाह है, लेकिन भारत के अन्‍य हिस्सों में-जो कि इस युद्ध क्षेत्र से बाहर हैं-गरीबों, मजदूरों, भूमिहीनों और जिनकी जमीनें सरकार 'सार्वजनिक उद्देश्य' के नाम पर हड़पना चाह रही है, उनके अधिकारों पर हमला और तेज होगा। उनका दर्द और गहराता जाएगा और इसकी कोई सुनवाई भी नहीं होगी।'

मैंने अरुंधति के साथ मंच पर भाषण दिया है और कारपोरेट घरानों द्वारा आदिवासियों की जमीनों पर कब्‍जा करने के कुचक्रों का विरोध भी किया है। नक्संलवाद की समस्या को लेकर संभवत: 'जनसत्‍ता' में सर्वाधिक लेख छपे होंगे। यह सब लिखना इसलिए जरूरी है कि मुझ जैसे व्यक्ति को अरुंधति राय के बयानों के कुछ हिस्सों से असहमति भी हुई है। जंगलों और आदिवासियों की जमीनों पर कब्‍जा करके दैत्‍याकार कारखाने लगाने की सरकार की नीति अलबत्ता एक बड़े बौद्धिक विरोध को आमंत्रण देती है। मैंने खुद टाटा और एस्सार स्टील के विरुद्ध एक नागरिक और वकील सुधा भारद्वाज की ओर से जनहित याचिका दायर की है। यह इस देश की न्यायपालिका है जिसने मामले की सुनवाई उस दिन संपन्न की, जब हाईकोर्ट के सभी वकील केवल एक दिन के लिए शत- प्रतिशत हड़ताल पर थे। दूसरे दिन विरोध करने पर न्‍यायालय ने सुनवाई नहीं खोलते हुए एक सप्ताह का समय केवल लिखित तर्क प्रस्तुत करने के लिए सभी पक्षों को दिया। समयावधि में पावती सहित लिखित तर्क पेश होने के बावजूद यह उल्‍लेख किया गया कि याचिकाकर्ताओं की ओर से लिखित तर्क नहीं मिला है। निर्णय को इस आधार पर फिर चुनौती दी गई कि लिखित तर्क प्रस्तुत कर दिया गया था और उस पर न्‍यायालय ने विचार तक नहीं किया है। आज तक वह पुनरीक्षण मामला लंबित है।

झूठे पुलिसिया एनकाउंटर का आरोप लगाकर मृतक आदिवासी परिवारों की ओर से याचिकाएं हाईकोर्ट में दायर की गई हैं। वे आज तक लंबित हैं। बहुत से और प्रकरण भी इसी तरह लंबित हैं। इसमें कोई शक नहीं कि इस देश की न्यायपालिका पर लगाए जाने वाले आरोप पूरी तौर पर गलत नहीं हैं। इसके बावजूद यदि हिंसक लड़ाई लंबी किए जाने के दावे किए जा रहे हैं, तो अहिंसक और कानूनी लड़ाई लडऩे के लिए हममें धीरज क्‍यों नहीं है?

कौन कहता है कि सरकारें दूध की धुली हुई हैं। पुलिस बेहद भ्रष्ट, निकम्मी और कायर भी है। मीडिया की जितनी स्तुति की जाए कम है। लेकिन यह सब लचर मनोवैज्ञानिकता तो लोकतंत्र का जरूरी उत्‍पाद है। क्‍या अरुंधति ऐसा समझती हैं कि माओवादियों के पास कोई जादुई छड़ी है जिससे इस देश में रामराज्‍य, नहीं, नहीं माओ राज्‍य आ जाएगा?

जहां तक लालगढ़, छत्तीसगढ़, ओडि़सा, आंध्र, बिहार, झारखंड या बंगाल वगैरह में माओवाद का चिंताजनक फैलाव है-उसकी दार्शनिक जांच के पैमाने अरुंधति के पास हैं। वे अलबत्ता ठीक- ठाक लगते हैं। भारतीय संविधान सभा ने तीन वर्षों की बैठक के बाद जनता का आईन गढ़ा। उसे बहुत से वायवी सैद्धांतिक मामलों तक पर बहस करने का पर्याप्त समय और उत्‍साह मिला। मूल अधिकारों और हाईकोर्ट में दाखिल होने वाली याचिकाओं के मॉडल तो उन्हें अमेरिका और इंगलैंड से ऐसे ही मिल गए थे। लेकिन अपने देश की लगभग बीस प्रतिशत दलित-आदिवासी जनता की सदियों पुरानी जीवन सड़ांध को खुशबू में बदलने के लिए हमारे संविधान निर्माताओं ने उस धैर्य और श्रम का प्रदर्शन नहीं किया, जिस अभाव को इतिहास की चूक के रूप में दर्ज किया जाना चाहिए।

गांधी जैसे शिखर-पुरुष ने खुद को संविधान सभा से अलग रखा। संविधान सभा ने भी गांधी- विचारों को तरजीह नहीं दी। गांधी को ही अपने जीवन में यह मलाल था कि उन्हें आदिवासियों की समस्याओं के लिए जितना ध्‍यान देना था, उसके लिए वक्त ही नहीं मिल पाया। यह संविधान का अजूबा है कि आदिवासियों की समस्याओं और अधिकारों को उनके परंपरागत प्राकृतिक अधिकारों के संदर्भ में रेखांकित नहीं किया गया। यह सुरक्षा जरूर ढूंढ़ ली गई कि राज्‍यपालों को यह अधिकार होगा कि वे मंत्रिपरिषदों से सलाह किए बिना यह तय करें कि संसद और विधानसभाओं में रचे गए अधिनियम और कानून आवश्यकतानुसार अनुसूचित आदिवासी क्षेत्रों में लागू ही नहीं किए जाएं। राज्‍यपालों को ये अधिकार भी दिए गए कि वे ऐसे इलाकों के लिए विधायिका की मदद के बिना कानून गढ़ सकते हैं। अरुंधति को इस संवैधानिक चूक, विशेषताया राज्‍यपालों की उदासीनता को लेकर अपना तर्क महल खड़ा करना चाहिए था।

प्रधानमंत्री ने कभी नहीं कहा कि आदिवासी इलाकों में नक्‍सली घुसे हैं। इसलिए उन्हें आदिवासियों से अलग करने के लिए सरकार ऐसी योजनाओं का क्रियान्‍वयन करेगी जिससे आदिवासी समृद्ध हों और नक्‍सलियों का दामन छोड़ दें। किस्सा कोताह यह हुआ कि वनवासियों को यदि उनके परिवेश से खदेड़ दिया जाए। जिस तरह वनैले पशुओं को घेरकर शहर की ओर भगाया जाता है, तो अकेले नक्‍सली वनों में क्‍या करेंगे। इस तरह न रहेगा बांस न बजेगी बांसुरी। अरुंधति का यह भी आरोप है कि सरकार की इस नीयत के कारण माओवादियों को वह अनावश्यक भूमिका, प्रचार और महत्‍व मिला जिसके वे अन्‍यथा हकदार नहीं थे। अरुंधति का यह भी आरोप है कि कर्नाटक के रेड्डी बंधुओं और झारखंड के मधु कोड़ा जैसे राजनीतिज्ञों के पास अकूत धन होने के आरोप मीडिया के बाजार में उछलते रहते हैं। इस बात पर ज्‍यादा बौद्धिक हो-हल्‍ला क्‍यों नहीं मचता कि उद्योग जगत के वे कौन से तत्‍व हैं जो असली खलनायकों की शक्‍ल अख्तियार किए हुए राजनीतिज्ञों को कठपुतलियों की तरह नचाते रहते हैं। क्‍या वजह है कि देश में एक राजा जैसे व्यक्ति को मंत्री बनाए जाने और फिर खास महकमा दिलाए जाने के लिए प्रभावशाली परोकार उद्योगपति टाटा की दलाली के आरोपी बताए जाते हैं। टाटा के ही कारण नंदीग्राम और सिंगूर में एक बड़ी राजनीतिक उथल-पुथल हुई। यदि ममता बनर्जी नहीं होतीं तो नैनो कारखाना तो लग ही गया होता। यही टाटा उद्योग है जो एस्सार वगैरह के साथ बस्तर में आए बिना मानेगा नहीं।

यहां ठहरकर लेकिन नक्‍सलियों की औद्योगिक समझ की नीयत पर सवाल खड़े होते हैं। यह तो अरुंधति ने भी माना है कि बाक्‍साइट या लौह अयस्क जैसे खनिजों के उत्‍खनन को लेकर माओवादी भी आदिवासियों की चिंताओं से बेपरवाह हैं। सरकार चाहती है कि सारे खनिज निजी उद्योगपति खोद लें और जंगल में मंगल मनाएं। आदिवासी चाहें तो मंगल गृह में जाकर अपना जंगल ढूंढ़ें। माओवादी चाहते हैं कि खदानें खनिज उत्‍पादन तो करें लेकिन वह सब सार्वजनिक क्षेत्र में हो अर्थात सत्‍तारूढ़ पार्टी के अर्थात आगे चलकर माओवादियों के राजसत्‍ता में आने की स्थिति में उनके एकाधिकार में रहे। माओवादी नेताओं गणपति, रामन्ना, गुडसा उसेंडी, किशनजी वगैरह ने समय-समय पर यह स्वीकार किया है कि उत्‍खनन होना चाहिए लेकिन आदिवासियों की वैकल्पिक बसाहट और क्षतिपूर्ति का ठीक-ठाक प्रबंध होना चाहिए। यहां ठहरकर अरुंधति से अलग हटकर माओवादियों से यह सवाल पूछा जा सकता है कि यदि सरकार के नियंत्रण और संबंधित मंत्रालयों में आवश्यक तकनीक, वित्‍तीय प्रबंध और संगठन का अभाव हो तो क्‍यों नहीं खदानें सरकारों के निर्णयों के अनुसार निजी उद्योगों को सौंप दी जाएं। फिर तो यह एक ही थैले के चट्टे-बट्टे या मौसेरे भाइयों की कथा जैसा प्रकरण हुआ।

अरुंधति द्वारा दिए गए आंकड़े दिलचस्प हैं। मैं उनकी यह बात नहीं मान सकता कि बस्तर के जंगलों में माओवादियों में 99 प्रतिशत आदिवासी हैं। हालांकि उनकी इस बात से हमें सहमत होना चाहिए कि 99 प्रतिशत आदिवासी नक्‍सली नहीं हैं। अंकगणित के लिहाज से यदि अरुंधति सही भी हों, तो भी इस पेचीदी समस्या का हल निकालने के लिए बीजगणित का सहारा लेना चाहिए। जितने भी आदिवासी नक्‍सली नेतृत्‍व के चंगुल में हैं, वे सब स्वेच्‍छा से नहीं हैं। उनका अपहरण किया गया है या उन्हें बंधक बनाया गया है। बीजापुर और दंतेवाड़ा जैसे जिले किसी अनाथालय, खुली जेल या बोर्डिंग स्कूल की तरह हैं, जहां से बाहर जाने की इजाजत नहीं है। बंदूक की नोक के दम पर आदिवासी युवजन को बंदूकें ही थमाई जा रही हैं। उन्हें हिंसा करने के लिए मजबूर किया जा रहा है। हिंसा औसत, पारंपरिक, सांस्कृतिक आदिवासी जीवन में एक जबरिया हस्तक्षेप है। इसलिए अरुंधति दंडकारण्‍य में नक्‍सलियों की युवा, बेलौस और बिंदास उपस्थिति में जो रोमांच अनुभव करती हैं, वह एक संवेदनशील लेखिका की नैसर्गिक प्रतिक्रिया है। जीवन का कडिय़ल यथार्थ लेकिन यह है कि वे लोग जो इंसानी संस्कृति के मानक अवयवों की तरह उपजे हैं, उन्हें जबरिया किसी हिंसा की फैक्‍टरी का मजदूर बना दिया गया है।

अरुंधति का यह कहना भी ठीक है कि जब हम अन्याय के खिलाफ किसी सेल्यूलाइड फिल्म के हीरो को प्रतिनायक की तरह आचरण करते हुए सिनेमा हॉल में देखते हैं, तो हममें भी अन्याय के खिलाफ युद्ध करने का एक हिंसक उबाल आता है। लेकिन जब ऐसी चुनौती राजनीतिक नारों के साथ बस्तर के जंगलों में गूंजती है, तो उसे हम नक्‍सली अर्थात हिंसक अर्थात अनर्गल करार देते हैं। हिंसा को लेकर निस्संदेह बहुत से प्रजातांत्रिक विमर्श हुए हैं। ये सवाल इतिहास में पहले भी उठे हैं, लेकिन अधिकतर विश्वविद्यालयों, सेमिनारों और सीमित संख्या के बुद्धिजीवियों के साथ।

आज यह सवाल उठ खड़ा हुआ है कि प्रजातंत्र बल्कि सभ्यता का ही क्‍या अर्थ है। अरुंधति के ऐसे दार्शनिक अंदाज निरर्थक नहीं हैं और उन्हें सतही तौर पर घृणा के साथ खारिज कर देने से कोई लाभकारी परिणाम नहीं आएगा। इतिहास यह सवाल अब हजारों बल्कि लाखों गरीबों और आदिवासियों के हलक में ठूंस रहा है। इन सवालों का उत्‍तर वक्त, प्रजातंत्र और भविष्य को देना होगा। इनकी अनदेखी नहीं की जा सकती। अरुंधति फिर यह ठीक कहती हैं कि ऐसे सवालों का जवाब किसी कांग्रेसी या भाजपाई सरकार या माओवादियों के पास नहीं है। यह सवाल पूरी पृथ्‍वी के अस्तित्‍व का है और विश्व के भविष्य से जुड़ा हुआ है।

जनप्रतिरोध की बानगियों का अध्‍ययन बल्कि समीक्षा करते हुए उन्होंनें भावावेश में कहा कि वे इस संघर्ष में हम जनता के पक्ष में हैं। कोई चाहे तो उन्हें जेल में डाल दे। एजेंसी के संवाददाता ने उनके भाषण के इस महत्‍वपूर्ण अंश को संदर्भ से काटकर वाक्‍यांशों में रिपोर्ट किया। जानबूझकर एक भ्रम पैदा किया। अरुंधति इस बात से भी खौफजदा हैं कि एक ओर सरकारी हिंसा की एकाधिकारवादिता जैसी थ्‍योरी का प्रचार किया जा रहा है और उसके साथ-साथ गुजरात के नरेन्‍द्र मोदी के उस चित्र का भी जिसमें मुख्यमंत्री गांधीनगर के अपने सरकारी आवास में बैठकर ए.के.-47 और एस.एल.आर. जैसे घातक हथियारों की पूजा करते दिखाए जाते हैं। यह कैसी मानसिकता है? यह सरकारी भय किसके लिए उत्‍पादित किया जा रहा है? मुझे अरुंधति के भाषण में यह सुनकर अच्‍छा लगा कि वे नहीं मानतीं कि माओवादी इस देश के गरीबों के अकेले या पहले उदधारक हैं और यह भी वह कतई माओवादी नहीं हैं। लेकिन वे यह जरूर मानती हैं कि आदिवासियों का नेतृत्‍व करते माओवादी अपने अनुयायियों का विश्वास खंडित नहीं करना चाहते।

यह फिर एक विचारणीय लेकिन विवादास्पद तर्क है। माओवादी अपने सिद्धांतों के प्रसरण के लिए मनुष्य संख्या के रूप में आदिवासियों का साथ ले रहे हैं अथवा वे आदिवासी जन-जीवन की चौतरफा समृद्धि के लिए लचीली, तार्किक, परिवर्तनशील और संभावनायुक्त वैचारिकता तथा मानवीयता पर भरोसा करते हैं। यदि वे आदिवासियों की कारपोरेट दुनिया द्वारा की जा रही लूट के खिलाफ हैं, तो वे उन दूसरे आदिवासियों की असहमति का सम्मान क्‍यों नहीं करते जो नक्‍सली तौर- तरीकों को समर्थन नहीं देते, या उनका भी जो कथित नव- पूंजीवाद से लुटने को तैयार बैठे हैं। समर्थक आंकड़ों की अंकगणित से खेलना माओवाद का घिनौना उदाहरण है जो चीन की धरती ने अपनी छाती पर लिख लिया है। वहां लाखों लोग मौत के घाट उतारे गए हैं। जो मरे और जिन्‍होंने हत्‍याएं कीं, उनके सांस्कृतिक चरित्र भारतीय आदिवासियों से विलग रहे हैं।

समर्थन और विरोध का यह कैसा तिलिस्म है जो सरकारों को उत्‍तेजित करता है कि वे मजबूर बस्तरिहा आदिवासियों का कत्‍लेआम करने के लिए नागा, मिजो, असमिया, मणिपुरी, नेपाली आदिवासी सैनिकों को बस्तर के जंगलों में इसलिए ठेल दें क्‍योंकि वे तथाकथित गुरिल्‍ला युद्ध शैली में पारंगत हैं। नक्सकलवाद का गोमुख नक्‍सलबारी समय के प्रवाह में अब भी बर्फ का जमा हुआ संस्करण है। भारतीय इतिहास की सांस्कृतिक नदी गंगा को लाशों, चमड़ों के कारखानों, रसायनों और मल-मूत्रों से प्रदूषित कर दिया गया है। उसी तरह माओवाद की यात्रा भी अनावश्यक हत्‍याओं, अपहरणों, बलाल्‍कारों, डकैतियों, धन उगाहियों, यथास्थितिवाद के पोषण और पूंजीवाद के माओवादी समानांतर से प्रदूषित हो गई है। अच्‍छा हो यदि अरुंधति इस पक्ष पर भी कभी विस्तार से लिखें।

अरुंधति ने यह भी तो कहा है कि 'नर्मदा बचाओ' आंदोलन जैसे लोकप्रिय प्रकरण के नेताओं के पास सार्थक दृष्टिबोध तो रहा है लेकिन कारगर रणनीति नहीं। इसके बरक्‍स माओवादियों के पास कारगर रणनीति तो है लेकिन भविष्यमूलक दृष्टिबोध नहीं। क्‍या इससे यह राजनीतिक सवाल उठ खड़ा नहीं होता कि जो महाभारत के युद्ध में धृतराष्ट्र है उसे ही कौरव पक्ष करार दिया जाए। चाहे वह सरकार हो या माओवादी। जो पांच गांव मांगने की तरह ही संतुष्ट हैं क्‍या वे आदिवासी पांडव परंपरा के नहीं हैं? यदि अरुंधति के वाक्‍यांश का समकालीन अर्थ बूझा जाए तो धृतराष्ट्र को माओवादी तथा सरकार का डबल रोल करना पड़ रहा है। फिर अरुंधति नक्‍सलियों पर तमाम तरह के आरोप लगाते हुए भी उन्हें आदिवासियों के पांडवी हमदर्द समझकर माओवाद में गीता के निष्काम कर्म तथा स्थितप्रज्ञता के तर्कों को प्रखरता से क्‍यों तलाश करती हैं? माओवादी निश्चित तौर पर जिद्दी और असहिष्णु हैं और उनमें विचारों की मुर्गी की एक टांग है। इसमें भी कोई शक नहीं कि उनका शत्रु अर्थात विश्व पूंजीवाद पूरी दुनिया को एक राक्षसी बाजार के रूप में तब्‍दील कर रहा है।

अरुंधति कहती हैं कि माओवादी पूंजीवादी व्यवस्था से इसलिए लड़ पा रहे हैं क्‍योंकि वे उस वैचारिक दर्शन के बाहर हैं। यह तो माओवाद का पुराना संस्करण है जब दुनिया में वैश्विक पूंजीवाद का वाइरस नहीं घुसा था। आज खुद चीन में क्‍या हो रहा है। भारतीय माओवादियों के पास कोई मौलिक विचार-दर्शन नहीं है। वे तो माओत्‍सेतुंग की रेलगाड़ी के डिब्‍बे हैं। इंजन तो बीजिंग में ध्‍वस्त हो चुका है । उसको सुधारने के लिए अमेरिकी कल-पुर्जों की दुकान खुद चीन ने खोल ली है। ऐसे में यदि माओवादी उनके अनुसार सत्‍ता में आ भी गए तो क्‍या वे नई दिल्‍ली को बीजिंग बना देंगे। तब उन वायदों का क्‍या होगा जो माओवादी नक्‍सली रूप धरकर आदिवासियों से आज कर रहे हैं। यदि उनमें मौलिक सोच होता तो कहते कि उन्होंनें माओ से प्रेरणा भले ग्रहण की हो, लेकिन उनका रास्ता भारतीय साम्यवाद का है। इसी वजह से माक्‍सवादी विचारक भगत सिंह ने कम्युनिस्ट पार्टी की सदस्यता नहीं ली थी।

लेनिन की क्रांति गोर्बाच्‍योव की प्रतिक्रांति में पहुंची है। भारतीय साम्यवाद की पूरी यात्रा चल तो रही है लेकिन पाथेय उसे मिलता नहीं है। कोल्हू के बैल की तरह चलने से दलहन से तेल तो निकलता है लेकिन बेचारे बैल कहीं नहीं पहुंच पाते। उस पर तुर्रा यह कि उनके मुंह और आंखों पर पट्टियां बंधी होती हैं। अरुंधति राय इस सामान्‍य अवधारणा का प्रतिरोध करती हैं कि देश में कुछ लोग उथल-पुथल या अशांति पैदा करते हैं जिसे खत्‍म करने की जिम्मेदारी सरकार की है। इसलिए सरकार को हिंसा और दमन के माध्‍यम चुनने होते हैं। उनका कहना है कि इसके ठीक उलट यह देश की सरकार है जिसे आम जनता के खिलाफ स्वयं के द्वारा उत्‍पन्न किए गए कारणों से युद्ध लडऩा पड़ता है। यदि सरकार-जनित ये सामाजिक राजनीतिक आर्थिक कारण नहीं होंगे, तो हिंसा का यह द्वंद्व शायद न्‍यूनतम हो। उनके अनुसार इतिहास में कई देशों में इस तरह की परिस्थितियां उत्‍पन्न होती रहीं, जब खुद शासन का नियम जनता के विरुद्ध आक्रामक और उग्र रहा आया है। भारतीय लोकतंत्र भी इसका अपवाद नहीं है। उसे जिस तरह चलाया जा रहा है उसके सफल संचालन के लिए इस तरह की यौद्धिक परिस्थितियां पैदा करना लाजमी समझा जाता है।

इस देश में हर एक अहिंसक दमदार आंदोलन को सरकार द्वारा माओवादी करार देना राजनीतिक फैशन या रणनीति है। इस देश के वे लोग जो अन्याय का प्रतिकार करते हैं और हर कीमत पर चाहे हिंसक या अहिंसक तरीके हों अपनी भूमियों के जबरिया अधिग्रहण का प्रतिरोध करना चाहते हैं उन पर माओवादी होने का तमगा लटका दिया जाता है। 1989 में जब पूंजीवाद ने अफगानिस्तान में कम्युनिज्‍म के खिलाफ लड़ाई जीती तो पूरी दुनिया में प्रति क्रांति का दौर शुरू हुआ। दुनिया के सारे मुल्क खामोश रहे। भारत जैसा गुटनिरपेक्ष देश भी पूंजीवाद के विरुद्ध कुछ नहीं बोला। इस घटना के बाद भारत सरकार ने दो ताले खोले। एक तो उसने बाबरी मस्जिद-राम मंदिर का ताला खोला और दूसरा उसने दुनिया के सभी देशों के लिए भारतीय बाजार के दरवाजे का ताला खोल दिया। इन दोनों अर्थात हिन्‍दू कठमुल्‍लापन और बाजार के फंडामेंटालिज्‍म को कायम रखने बल्कि सफल बनाने के लिए दो तरह के आतंकवाद पनपाए गए। एक इस्लामी आतंकवाद और दूसरा माओवादी आतंकवाद।

प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह और गृह मंत्री चिदंबरम का यह सोचना है कि एक विकसित भारत में 85 प्रतिशत जनता को शहरों में रहना चाहिए। इसका मतलब यह हुआ कि देहाती इलाकों से तकरीबन 50 करोड़ लोगों को शहरों की ओर ठेलना होगा तब ही उनका यह सपना संभव होगा। समाज में कारपोरेट दुनिया के द्वारा किया जा रहा विज्ञापन और प्रचार लोगों के जेहन में और खासकर मध्‍यवर्ग के जेहन में ऐसी बातें भर रहा है जो पूरी तौर पर अव्यावहारिक, काल्पनिक, असामाजिक और वर्गीय सामंजस्य विरोधी हैं। लेकिन बाजार की ये शक्तियां राजनीतिक शक्तियों के साथ मिलकर लगातार आगे बढ़ रही हैं। उदाहरण के लिए दिल्‍ली में राष्टकुल खेल हो रहे हैं। इनमें तीस हजार करोड़ रुपए खर्च किए जाएंगे। अठाईस सौ करोड़ रुपए तो केवल इन खेलों के शुरूआती अभ्यासों के लिए खर्च हो जाएगा। दिल्‍ली की बहुत बड़ी आबादी से जगहें खाली कराई जा रही हैं। गांव से खदेड़ी गई झोपडिय़ां और घर शहरों के अंदर झुग्‍गी झोपडिय़ों के हुजूम में तब्‍दील हो जाती हैं। ऐसी अमानवीय स्थितियों में उन्हें रहना पड़ता है जिसकी कल्पना नही की जा सकती।

मैं अरुंधति की इस केन्‍द्रीय चिंता से फिर सहमत हूं कि सभ्य नागरिक समाज को यह गलतफहमी नहीं होनी चाहिए कि आदिवासियों को खानाबदोश बना दिए जाने से नागर सभ्यता पर प्रतिकूल असर नहीं पड़ेगा। अरुंधति में यह भी रोमानी आत्‍मविश्वास है कि आदिवासी इस लड़ाई में कभी पराजित नहीं होंगे। यह बेहद महत्‍वपूर्ण है कि विश्व पूंजीवाद के दानव से लडऩे का सबसे बड़ा साहस आदिवासी दिखा रहे हैं। वे यह नहीं समझते कि पूंजीवाद क्‍या है। वे राजनीतिक व्यवस्थाओं को नहीं जानते। उन्हें यह नहीं मालूम है कि भारत क्‍या है और उसकी भौगोलिक सीमाएं क्‍या हैं। लेकिन वे यह जरूर जानते हैं कि जंगल उनका है। नदियां, पहाड़, पशु पक्षियों का कलरव, रत्नगर्भा धरती के अवयव, ग्राम्य जीवन की लाक्षणिकताएं सब कुछ उनका है। बड़े कारखानों, खदानों, उद्योगपतियों, सरकारों, नेताओं, नौकरशाहों, व्यापारियों और बुद्धिजीवियों के जरिए उनका विकास हो सकता है। ऐसा भी वे नहीं समझते। संविधान, लोकतंत्र, चुनाव, मंत्री परिषद, न्यायपालिका, पुलिस मशीनरी वगैरह की मदद से यदि उनके जीवन में कोई ढांचागत परिवर्तन किया जाएगा तो वे किसी भी हालत में अपने अधिकारों के लिए आखरी सीमा तक लडऩे मरने को प्रतिबद्ध रहेंगे।

अपनी अंतरात्‍मा का इतना संदेश वे अब भी बूझते समझते हैं। यदि एक बार आदिवासियों ने ठान लिया कि उन्हें उनकी जड़ों से उखाड़ा नहीं जा सकता तो दुनिया की कोई भी वैश्विक बाजारवाद या सरकार की ताकत ऐसे आदिवासियों को पराजित नहीं कर सकेगी। इतिहास का यथार्थ क्‍या है? पूरा भारत अपने दब्‍बू स्वभाव के कारण कई बार पराजित नहीं हुआ है? सदियों पुराने विदेशी आक्रान्‍ता घने जंगलों के कारण आदिवासियों तक नहीं पहुंच पाए। इसलिए आदिवासी संस्कृति स्वायत्‍त बनी रही। उन दिनों वनों को तबाह करने, खनिजों को उत्‍खनित करने, नदियों पर बांध बनाने की कोई औद्योगिक सभ्यता पनपी ही नहीं थी। बहुराष्ट्रीय कंपनियों के सोने चांदी के जूते तो भारतीय राजनेता आज अपनी छातियों पर तमगों की तरह लटकाए घूम रहे हैं। आदिवासी कब तक उनसे बच पाएंगे? जिस हुकूमत के पास विस्थापित आदिवासियों की वैकल्पिक बसाहट के लिए भूमियां उपलब्‍ध नहीं हैं, उसी सरकार ने विशेष आर्थिक क्षेत्र बनाने के लिए एक सौ चालीस हजार हेक्‍टेयर भूमि कहां से ढूंढ़ ली-यह भी अरुंधति का ही तर्क है।

राजनांदगांव के एक कवि का उन्होंनें मोहक उल्‍लेख किया है। उसके अनुसार मनमोहन सिंह का अर्थशास्त्र खून में उतरे हुए विष की तरह है। उलटबांसी का प्रयोग करते हुए अरुंधति कहती हैं कि यह कैसा विरोधाभास है कि पाकिस्तान जैसा सैनिक तानाशाही में अमेरिका की वजह से फंसा देश लोकतंत्र के लिए ललक रहा है और दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र भारत अपने राजनेताओं की वजह से जनता से युद्ध करता हुआ सैन्‍य तानाशाही की ओर बढ़ रहा है। पाकिस्तान की ललक तो इतिहास-सम्मत है और इसलिए वांछनीय भी। लेकिन भारतीय शासन व्यवस्था में सैन्‍य तानाशाही के लक्षण फिलहाल तो कुलबुलाते नहीं दिखाई देते। लचर लोकतंत्रीय व्यवस्थाओं के चलते सरकारें अनुकूल प्रशासनिक निर्णय नहीं कर पाती हैं। माओवादियों ने सीआरपीएफ के 76 जवानों की हत्‍या क्‍या कर दी, पूरे देश के नेता राजनीतिक विचारों की नेट प्रैक्टिस करने लगे। मंत्रीपरिषद की गोपनीय बातें अखबारों में छपने लगीं। दोनों बड़ी राजनीतिक पार्टियां अपने घाव सुखाने और दूसरे के दिखाने लगीं। सेना के अफसर विरोधाभासी बयान देने लगे। केन्‍द्र और राज्‍य की समझ का अलगाव नक्‍सलियों की अप्रत्‍यक्ष मदद करता रहा। पुराने पेंशनयाता अफसरों की रोजी-रोटी चलने लगी।

नहीं लिखने को रचनात्‍मक मीडिया कर्म समझा जाने लगा। एक छोटी सी घटना ने निर्णय बुद्धि की चूलें हिला दीं। बंगाल के दो गांव-क्षेत्र में नैनो कार के पलायन ने पूरी राज्‍य व्यवस्था को ताश के पत्‍तों की तरह फेंट दिया। जो साम्यवाद पिछले चालीस वर्षों से जन्‍मघुट्टी की तरह बंगाल के युवा वर्ग को चटाया जा रहा था, वह एक जन्‍मगत ब्राम्हण तथा कर्मगत क्षत्री के उग्र तेवर के सामने काफूर हो गया। ऐसे में यह कैसे माना जाएगा कि भारतीय राजनीतिक व्यवस्था या कार्यपालिका के जेहन में सैन्‍य तानाशाही के कीड़े बिलबिला रहे हैं। कारपोरेट दुनिया के वैभव का चमत्‍कार भारतीय राजनेताओं के लिए निस्संदेह एक अनोखा अनुभव है। उसमें वे डूबे रहना चाहते हैं-यह तो कहा जा सकता है। देश के शीर्ष कवि विनोद कुमार शुक्‍ल ने मेरी पुस्तक 'बस्तर: लाल क्रांति बनाम ग्रीन हंट' की भूमिका में यह कविता लिखी है जो भाषा की उग्रता के बिना एक अवसाद हममें संवेदनशीलता के साथ रचती है:

जो प्रकृति के सबसे निकट हैं
जंगल उनका है
आदिवासी जंगल के सबसे निकट हैं
इसलिए जंगल उन्‍हीं का है।
अब उनके बेदखल होने का समय है
यह वही समय है
जब आकाश से पहले
एक तारा बेदखल होगा
आकाश से चांदनी
बेदखल होगी-
जब जंगल से आदिवासी
बेदखल होंगे।
जब कविता से एक एक शब्‍द
बेदखल होंगे।

कनक तिवारी
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  1. माओवादियों का विरोध करने वाले अकसर जल ,जंगल और जमीन से आदिवासियों के जुडाव और उनके अधिकारों की अनदेखी कर जाते है .या फिर जो यह सवाल उठाए उन्हें जबरन माओवादियों का समर्थक घोषित करने वाला फ़तवा दे देते है .इन दोनों के बीच के फर्क को समझना चाहिए .कुछ दिन पहले ही कालाहांडी के संसद भक्त चरण दास जिन्हें ताकतवर खनन लाबी ने केंद्र में मंत्री नही बनने दिया उन्होंने कहा -हमारे यहाँ वेदांता समूह के खिलाफ आदिवासियों के संघर्ष का माओवादी समर्थन नहीं करते बल्कि इस समूह से वसूली कर उनके पक्ष में खड़े नज़र आते है.देश के विभिन्न हिस्सों में चल रहे लोकतान्त्रिक आंदोलनों को कभी भी माओवादियों का समर्थन नहीं मिला .पर इस फर्क को मूढ़ किस्म के भाजपाई या कांग्रेसी न समझे तो दिक्कत नही पर जब मीडिया वाले नहीं समझ पाते तो जरुर दुःख होता है .नए पत्रकार विभिन्न राजनैतिक धाराओं के प्रति उतने जागरूक नहीं है जितने पहले की पीढी के लोग थे .इसकी एक वजह पुराने पत्रकारों ने नए लोगों को सिखाना छोड़ दिया तो दूसरी तरफ आज का पत्रकार ज्यादा जानना भी नहीं चाहता .अरुंधती की हर बात से हम भले सहमत न हो पर जो तार्किक रूप से सही बात कह रही हो उसका विरोध क्यों करना चाहिए

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  2. वातानुकूलित कक्ष चिंतन और सर्वज्ञात घुमक्कड़ी में से ऊपजे विचारों में कोई एक चुने जाने की पहल की जाये तो निश्चय ही घुमक्कड़ी का हाथ पकड़ लूंगा भले ही यह विचार कितने ही खुरदरे भी क्यों ना हों और उनसे मेरी अब तक स्थापित चिंतन दृष्टि को चोट भी पहुंचती हो ...मुझे यह स्वीकार करना होगा कि यह देश की बड़ी आबादी का सत्य है ! नि:संदेह , न्याय के पारंपरिक रूढ़ सिद्धांत अगर बहुसंख्य आबादी के साथ विदेह राज सा व्यवहार करते हों तो उनकी मुक्ति , उनके तर्पण के यत्न तेज कर दिए जाने चाहिये ! प्रश्न केवल यह नहीं है कि सार्वजनिक उद्देश्यों के नाम पर सरकारें उस आम आदमी का 'लेंगटे' ( आप इसे लंगोट पढिये... वैसे यह परिधान लज्जा निवारण हेतु आदिवासियों का एकमात्र सहारा है ) भी खींच लेना चाहती है बल्कि अपने इस कथित जनकल्याणकारी मुखौटे के समर्थन में वे बल प्रदर्शन पर उतारू भी हैं ! क्या यह संभव है कि वंचित आबादी अपने प्रतिरोध की कवायद , सत्ता केन्द्रों / राजधानियों में पहुंचकर, कर पाये ? स्पष्ट है कि वे युद्ध क्षेत्रों के निर्धारण की हैसियत नहीं रखते ...अब अगर सरकारें इस कमजोरी को पहचान कर ,जानबूझकर , इरादतन , पिन पाइंटेड हमला कर रही हों तो इसे युद्ध नियमों के अनुरूप कार्यवाही कहना संभव है क्या ?

    बहस में आदिवासियों की बेहतरी के मुताल्लिक राज्यपालों की उदासीनता और संविधान सभा विषयक संकेत सही है किन्तु सारी अपेक्षायें अरुंधति राय से ही क्यों ? आप और हम जैसे लोग भी क्यों नहीं इस संवैधानिक चूक विशेषकर महामहिमों की उदासीनता पर तर्क के महल खड़े करते ? ये ठीक है कि अरुंधति एक बड़ा बैनर है और उनके मुंह से निकला एक शब्द भी बड़ी गूंज पैदा करता है पर उनकी अपनी वैचारिक / चिंतन सीमायें क्यों नहीं हो सकतीं ? उन्हें अतिमानवीय बौद्धिकता के रूप में स्थापित करने और उनकी कमजोरियों को इंगित करते रहने की अपेक्षा हम सब को भी अपने नागरिक दायित्वों के बारे में सोचना होगा ! यह लोकतान्त्रिक देश है , यहां आन्दोलन और विचार की वनमैन आर्मी का ख्याल छलावे जैसा है ...अरुंधति खड़ी हैं एक विचार , एक पक्ष के साथ ...और उनकी कुछ कमजोरियां भी हो सकती हैं , जोकि अस्वाभाविक नहीं है तो फिर हम उन कमजोरियों को दूर करते रहने की अपील में लगे रहें या फिर खुद भी खड़े हो जायें उन कमजोरियों को दूर करने में,अपनी असहमतियों के पक्ष में !
    ये सही है कि औद्योगिक विकास की समझ और नियत को लेकर माओवादियों से सवाल और उनके पास विकास की कोई जादुई छडी ना होने का तर्क सर्वथा उचित है किन्तु इससे पहले यह प्रश्न चिन्ह तो सरकारों पर भी लगाया जाना चाहिये !

    चलिये कम से कम यह तो स्पष्ट हुआ कि अरुंधति ,माओवादियों को आदिवासियों का पहला और एकमेव उद्धारक नहीं मानतीं...इन्गिति यह कि वे उद्धार कार्य के लिए नियत सरकारों की विफलता अथवा जानी बूझी उदासीनता के चलते उस 'पार' खडीं हैं ! चर्चा में एक विलक्षण तर्क सामने आया कि आदिवासियों के पक्षधर होने का दावा कर रहे माओवादी , उनके क्रिया कलापों का समर्थन नहीं कर रहे आदिवासियों की असहमति का सम्मान क्यों नहीं करते ? ... खूब ...असहमत तो हम भी हैं और सरकार भी...तो हमारी असहमतियों का सम्मान भी माओवादियों को करना ही चाहिये...ये आग्रह गलत नहीं है ! ... पर है दूसरे पक्ष से ! क्यों ना इस तर्क को पलट कर , इस सवाल का जबाब हम भी दें कि आप , मैं और सरकारें वगैरह वगैरह कब और किस घड़ी , असहमतियों को सम्मान देंगे ?

    आलेख में राजनेताओं / उद्योगपतियों के स्पेसिफिक हवाले और माओवादियों के वैचारिक दर्शन से बाहर होने जैसे संकेतों के साथ , अरुंधति का वैचारिक रोमान भी है कि आदिवासी कभी पराजित नहीं होंगे तथा लोकतंत्र की छटपटाहट और सैन्य तानाशाही के सवाल भी हैं ...एक लम्बी अर्थपूर्ण बहस ... तार्किक समझ ...पर अभी तो ...मैं खुद भी कविता से शब्दों की बेदखली के अंदेशों में जी रहा हूं !

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  3. वातानुकूलित कक्ष चिंतन और सर्वज्ञात घुमक्कड़ी में से ऊपजे विचारों में कोई एक चुने जाने की पहल की जाये तो निश्चय ही घुमक्कड़ी का हाथ पकड़ लूंगा भले ही यह विचार कितने ही खुरदरे भी क्यों ना हों और उनसे मेरी अब तक स्थापित चिंतन दृष्टि को चोट भी पहुंचती हो ...मुझे यह स्वीकार करना होगा कि यह देश की बड़ी आबादी का सत्य है ! नि:संदेह , न्याय के पारंपरिक रूढ़ सिद्धांत अगर बहुसंख्य आबादी के साथ विदेह राज सा व्यवहार करते हों तो उनकी मुक्ति , उनके तर्पण के यत्न तेज कर दिए जाने चाहिये ! प्रश्न केवल यह नहीं है कि सार्वजनिक उद्देश्यों के नाम पर सरकारें उस आम आदमी का 'लेंगटे' ( आप इसे लंगोट पढिये... वैसे यह परिधान लज्जा निवारण हेतु आदिवासियों का एकमात्र सहारा है ) भी खींच लेना चाहती है बल्कि अपने इस कथित जनकल्याणकारी मुखौटे के समर्थन में वे बल प्रदर्शन पर उतारू भी हैं ! क्या यह संभव है कि वंचित आबादी अपने प्रतिरोध की कवायद , सत्ता केन्द्रों / राजधानियों में पहुंचकर, कर पाये ? स्पष्ट है कि वे युद्ध क्षेत्रों के निर्धारण की हैसियत नहीं रखते ...अब अगर सरकारें इस कमजोरी को पहचान कर ,जानबूझकर , इरादतन , पिन पाइंटेड हमला कर रही हों तो इसे युद्ध नियमों के अनुरूप कार्यवाही कहना संभव है क्या ?

    बहस में आदिवासियों की बेहतरी के मुताल्लिक राज्यपालों की उदासीनता और संविधान सभा विषयक संकेत सही है किन्तु सारी अपेक्षायें अरुंधति राय से ही क्यों ? आप और हम जैसे लोग भी क्यों नहीं इस संवैधानिक चूक विशेषकर महामहिमों की उदासीनता पर तर्क के महल खड़े करते ? ये ठीक है कि अरुंधति एक बड़ा बैनर है और उनके मुंह से निकला एक शब्द भी बड़ी गूंज पैदा करता है पर उनकी अपनी वैचारिक / चिंतन सीमायें क्यों नहीं हो सकतीं ? उन्हें अतिमानवीय बौद्धिकता के रूप में स्थापित करने और उनकी कमजोरियों को इंगित करते रहने की अपेक्षा हम सब को भी अपने नागरिक दायित्वों के बारे में सोचना होगा ! यह लोकतान्त्रिक देश है , यहां आन्दोलन और विचार की वनमैन आर्मी का ख्याल छलावे जैसा है ...अरुंधति खड़ी हैं एक विचार , एक पक्ष के साथ ...और उनकी कुछ कमजोरियां भी हो सकती हैं , जोकि अस्वाभाविक नहीं है तो फिर हम उन कमजोरियों को दूर करते रहने की अपील में लगे रहें या फिर खुद भी खड़े हो जायें उन कमजोरियों को दूर करने में,अपनी असहमतियों के पक्ष में !
    ये सही है कि औद्योगिक विकास की समझ और नियत को लेकर माओवादियों से सवाल और उनके पास विकास की कोई जादुई छडी ना होने का तर्क सर्वथा उचित है किन्तु इससे पहले यह प्रश्न चिन्ह तो सरकारों पर भी लगाया जाना चाहिये !

    चलिये कम से कम यह तो स्पष्ट हुआ कि अरुंधति ,माओवादियों को आदिवासियों का पहला और एकमेव उद्धारक नहीं मानतीं...इन्गिति यह कि वे उद्धार कार्य के लिए नियत सरकारों की विफलता अथवा जानी बूझी उदासीनता के चलते उस 'पार' खडीं हैं ! चर्चा में एक विलक्षण तर्क सामने आया कि आदिवासियों के पक्षधर होने का दावा कर रहे माओवादी , उनके क्रिया कलापों का समर्थन नहीं कर रहे आदिवासियों की असहमति का सम्मान क्यों नहीं करते ? ... खूब ...असहमत तो हम भी हैं और सरकार भी...तो हमारी असहमतियों का सम्मान भी माओवादियों को करना ही चाहिये...ये आग्रह गलत नहीं है ! ... पर है दूसरे पक्ष से ! क्यों ना इस तर्क को पलट कर , इस सवाल का जबाब हम भी दें कि आप , मैं और सरकारें वगैरह वगैरह कब और किस घड़ी , असहमतियों को सम्मान देंगे ?

    आलेख में राजनेताओं / उद्योगपतियों के स्पेसिफिक हवाले और माओवादियों के वैचारिक दर्शन से बाहर होने जैसे संकेतों के साथ , अरुंधति का वैचारिक रोमान भी है कि आदिवासी कभी पराजित नहीं होंगे तथा लोकतंत्र की छटपटाहट और सैन्य तानाशाही के सवाल भी हैं ...एक लम्बी अर्थपूर्ण बहस ... तार्किक समझ ...पर अभी तो ...मैं खुद भी कविता से शब्दों की बेदखली के अंदेशों में जी रहा हूं !

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