बस्तर घोटुल के आदि देव लिंगो .... अब बस भी करो भगवन

पूरे एक हजार पचानबे दिन यानि तीन साल का लंबा इंतजार अपने परिजनों से मिलने का, ये इंतजार की घडिय़ां काटे नहीं कटती होंगी 'लिंगों’ से, वैसे भी सात भाईयों में सबसे छोटे सबके लाडले भावुक व संवेदनशील। कला व संस्कृति के इस देवता ने आदिवासी समाज को समाजिक सराकारों की अद्भुत समझ दी है।
कांकेर जिला मुख्यालय से दूर साल वन, एक छोटी सी बरसाती नदी और सालभर झर-झर झरने वाली झरिया के किनारे बसा सेमरगांव, इस कला व संस्कृति के देवता लिंगों का गांव है। पूरे तीन साल बीतने के बाद चौथे साल चैत्र माह में 'लिंगों’ के नेह भरे आमंत्रण पर पूरा परिवार या कह ले पूरा कुटुंब यहां इकट्ठा होता है। लिंगों के परिजन बस्तर के अलग-अलग गांवों में स्थापित (बसे) हैं, को कंधों पर पालकी में बिठाकर लाने का काम उनके द्वारा बनाए गए गोत्र के लोग करते हैं, यही एक माध्‍यम बन जाता है लोगों के आपस में मिलने का। इस पूरी सामाजिक संरचना को समझना भी एक अलग शोध का विषय हो सकता है। कहते हैं कि कला व संस्कृति के देवता लिंगों एक साथ अठारह वाद्ययंत्र बजा लेते थे और अद्भुत नृतक थे। इसकी बानगी चौंदहवीं के चांद की खूबसूरत चांदनी जो साल के ऊंचे भरे-पूरे दरख्तों से छन-छन कर आ रही थी देखने को मिली।
इस समागम (मेला) का हम भी तीन साल से इंतजार कर रहे थे। हम इससे पहले भी कई बार सेमरगांव गए हैं और लिंगों से भेंट की है। लिंगों गांव से थोड़ी दूर घने साल वन में निवास करते हैं आरै बहुचर्चित 'घोटुल’ आदिवासी समाज को इन्‍हीं की देन है, सामाजिक सरोकारों की यह अद्भुत पाठशाला हैं घोटुल। प्रसिद्घ समाजशास्त्री और नृशास्त्रीय वेरियर एलविन की चर्चित किताब 'मुरिया और उनका घोटुल’ में एलविन लिखते हैं- 'मुरिया घोटुल एक ऐसी संस्था है जिसकी शुरूआत लिंगोपेन-गोड़ों की लोक कथाओं के प्रसिद्घ नायक ने की थी और जिसकी सदस्य कबीले के हर अविवाहित लड़के तथा लड़की को बनना पड़ता है।
घोटुल की सदस्यता की, सावधानी द्वारा निर्धारित की गई, अपनी प्रक्रिया होती है। कुछ समय लड़कों और लड़कियों को निगरानी में रखने के बाद, उन्‍हें औपचारिक रूप से सदस्य बनाया जाता है। ऐसा करते समय उन्‍हें नए नाम दिए जाते हैं। प्रत्‍येक नाम के साथ एक श्रेणी और उसके अपने सामाजिक कर्तव्‍य जुड़े होते हैं। घोटुल के समाज को अनुशासित करने के लिए नेताओं को नियुक्‍त किया जाता है।
सारे सामाजिक अवसरों पर उन्‍हें महत्‍वपूर्ण दायित्‍वों का निर्वाह करना पड़ता है। इसकी झलक हमें मेले में देखने को मिली। रात में लिंगो के परिजनों जो अमूर्त रूप में होते हैं उन्‍हें कांधे पर उठाए समूह में लोग नाच रहे थे और उनके साथ आए लोग रंग-बिरंगे परिधानों में, पक्षियों, कौडिय़ों व मोती की मालाओं से सजे-धजे नाच रहे थे, इस नृत्‍य में सभी उम्र के लोग थे, कुछ समूह में नाच रहे थे तो कोई अकेला मस्ती में डूबा नाच रहा था और इन्‍हें देखने सैकड़ों लोगों की भीड़ थी जिन्‍हें हाथ में बांस की पतली-पतली टहनियां लिए युवा लड़के-लड़कियां नियंत्रित कर रहे थे और दर्शक भी पूरा सहयोग कर रहे थे। आठ-दस हजार की इस भीड़ में न तो छेड़छाड़ हुई, न मारपीट, न गाली-गलौज न धक्‍का-मुक्‍की सब अपने-अपने में मगन थे। मेले के चारों तरफ दुकानें सजी थीं। शाम को सिर्फ मेला स्थल पर ही लाइट थी बाकी चारों तरफ लोगों ने उजाले के लिए खुद ही व्यवस्था कर रखी थी। चारों तरफ घना साल का जंगल बस चौंदहवीं का चांद ही उजाला दे रहा था। सेमरगांव जहां लिंगों की पवित्र भूमि है वहीं ये संवेदनशील गांव के रूप में भी चिन्हित है।
सन् २००८ में इस गांव में नवनिर्मित स्कूल व उसके पास बने दो और भवनों को नक्‍सलियों ने ढहा दिया था चूंकि ये स्कूल गांव में प्रवेश करते समय सड़क के किनारे बनाया गया था इसलिए जब भी लिंगों के दर्शन करने जाते तो यह टूटा स्कूल आंखों को चुभता और मन को उदास कर जाता। हमारे साथ और लोगों को भी लग रहा था कि ये टूटा स्कूल उत्‍सव के समय अच्‍छा नहीं
लगेगा, क्‍या किया जाए? और उसका भी समाधान हो गया। उस टूटे स्कूल का मलबा उठा लिया गया और उस पूरी जगह को समतल कर दिया गया। एक और बात अच्‍छी हुई कि पुलिस व फोर्स को तैनात नहीं किया गया, इतनी बड़ी भीड़ स्वयं नियंत्रित थी।
बस्तर में मेला-मड़ई परिजनों से मेल-मुलाकात व एक-दूसरे के घर अतिथि बनकर जाने का होता है, जानकारियां इकट्ठी करने का भी सबसे अच्‍छा माध्‍यम, इसी प्रक्रिया के दौरान पता चला की इस बार मेला दूसरे दिन दोपहर तक समाप्‍त हो जाएगा यानि हमारी करनियों का फल अब हमारे देवी- देवताओं को भी भुगतना पड़ेगा। तीन साल के लंबे इंतजार के बाद लिंगों अपने परिजनों के साथ खूब उत्‍सव मनाते हैं और अंतिम दिन वो अपने स्थान में झूले पर बिराजते हैं और उनके आवास के सामने जो आंगन हैं उसमें उनके नाते-रिश्तेदार मांदर, मांदरी, ढोलकी, घुघरू और ऐसे ही अनेक वाद्ययंत्रों के समुमधुर संगीत स्‍त्री-पुरूषों के सुरीले सामूहिक गान का मजा लेते हुए, मंद-मंद पवन के झोकों के साथ झूला झूलते हुए अपने परिजनों को बिदा करते हैं, परंतु इस बार ये बिदाई ऐसी भागदौड़ में हुई कि कुछ समझ में नहीं आया। इस भागदौड़ से मन एकदम तिक्‍त हो गया क्‍योंकि अभी तक तो मुझे ऐसा एकांत मिल ही नहीं पाया था जब मैं मन को एकाग्र कर लिंगों से कह सकूं कि बस्तर में फिर से सुख-शांति और जीवन का संगीत लौट आए और कह संकू कि अब बस भी करो भगवन्।
तनाव-दबाव और फरमानों के बीच कैसे जिया जाता है यह तो वह समझ सकता है जिसे जीना पड़ता है, यही वो बिंदू है जहां शब्‍द मौन हो जाते हैं। इस तरह दबावों के साथ लोग जीना तो सीख गए हैं परंतु कभी-कभी अखरता भी है, सीधी बात है इसे समझाया नहीं जा सकता खासतौर से जब हमारी संवेदनाएं भोथरी हो चुकी है इसे न तो शासन-प्रशासन समझ पाता है और न वो मानव अधिकारों की वकालत करने वाले इसमें से अधिकांश ने सिर्फ नक्‍शे में ही बस्तर देखा है या फिर जिला मुख्यालयों को छू कर बयान दिया और लौट गए। शहरों में पर्व-उत्‍सवों का मतलब है सत्‍ता, शक्ति और पैसों का भोंडा प्रदर्शन। वो क्‍या समझें कमसिन उम्र से उम्रदराज लोगों का मस्ती में डूबकर अपने पुरखों के सामने नाचना जिन्‍हें वो प्‍यार से बूढ़ादेव - बूढ़ीदाई कहते हैं परंतु तथा कथित सभ्य समाज के लिए पिछड़े और असभ्य लोग हैं, जो आज भी आदिम युग में रहना चाहते हैं। परंतु क्‍या इन सभ्य लोगों को अहसास है कि इन्‍हीं लोगों ने हजारों हेक्‍टेयर में जंगल को बचा रखा है जो जिंदा रहने के लिए प्राणवायु देते हैं जो आज भी आषाढ़ के बादलों को रिझाते हैं जिससे इस पृथ्‍वी पर पानी बचा है। क्‍या हम बिना हवा-पानी के भी जी सकते हैं यदि कोई तरीका हो तो हमें बताना क्‍योंकि यही संसाधन हमारे जी का जंजाल बन गए हैं?
आशा शुक्ला
(लेखिका लंबे समय से छत्तीसगढ़ में पत्रकार के रुप में काम कर चुकी हैं। इन दिनों कांकेर में रहकर वे सामाजिक क्षेत्रों में काम कर रही हैं)
प्रदेश हित में साभार छत्तीसगढ़
घोटुल, लिंगो देव व मुरिया के चित्रों को आप फ्लिकर में यहां देख सकते हैं -
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3 टिप्पणियाँ:


  1. प्रत्यक्षम किंम प्रमाणम ?
    यह सब मेरा देखा सुना हुआ है !
    एक चीज जो मुझे प्रभावित करती रही है,
    वह है, घोटुल का सँयमित अनुशासन.. जितना मेरे समझ में आया ।
    आदिवासियों की सरलता का मैं कायल रहूँगा, पर अपने इसी गुण के चलते वह हम शहरियों की नज़रों में ज़ाहिल हैं ।
    इन मानवों की निष्कलुष विशिष्ट जीवन शैली को आई.क्यू. IQ मानकों पर ख़ारिज़ कर दिया जाना तक़लीफ़देह है !

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  2. jaise jaise ise padhte ja raha tha bas aashaa jee ka likha hua yad aa rahaa tha, aakhir me dekha to aasha jee ka hi nam tha.
    aashaa jee ke margdarshan me navbharat me kaam karne ka mauka mila hai 2004 me. leadiing quality unme gazab ki hai.

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  3. इस विचारोत्तेजक लेख के क्षरा घोटुल समाज के बारे में जानकारी मिली, साथ ही उनकी चिंताओं से भी दोचार हुए। शुक्रिया।
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    कौन हो सकता है चर्चित ब्लॉगर?
    पत्नियों को मिले नार्को टेस्ट का अधिकार?

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