साखी....


साखी....


एक झन के जन्माये एक अँगना मा खेलेन बाढें !
हिन्दू सिख ईसाई मुल्ला फेर कैसे बन ठादें !!




जनधन पाके अतियाँवय अउ पद पाके गरुवाय !
जोबन पाके इतरावय पर एक्को संग ना जाय !!




बिरथा करत गुमान हवस ये कभू दगा दे जाहय !
हाड़ मास के पुतरी संगी माटी मा मिल जाहय !!




कए दिन के जिनगानी सुघ्घर हांसत खेलत पहा ले !
गुरतुर भाखा बाउर के भईया अंतस ला फरियाले !!




काम क्रोध अउ लोभ इनकर किस्सा ला कतेक बखानी !
जिनगी के जब्बर बैरी तीनों अवगुन ल जानी !!




घरी घरी घुरत हे जिनगी पल पल खिरत जाय !
बिना तेल के बाती कस जाने कब जाहे बुझाय !!




चार लाख चौरासी भटके तब मनखे तन पाये !
देहरी मा ठाडे गुण भीतर घुसरे के बिसराये !!




पानी भीतर के पुरैन कस ये दुनिया मा जीले !
जम्मो रस के सार राम-रस तैं जी भर के पीले !!




दुसर के दुःख देख देख दुरिहाले जौन मुस्काथे !
'बुध' काबर नई सोचे एक दिन ओकरो ऊपर आथे !!




रचयिता .....
सुकवि बुधराम यादव..
बिलासपुर...
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संगी-साथी