नयना नीर भरे कोई फिर ना झरे
नाही कोई किसी को छले
आओ सबसे से मिले गले.....
इस चमन में अमन की वो गंगा बहे
जन गण सदियों सलामत औ चंगा रहे
धरा धर्ममय सर्वसम्पन्न जन
भूख भय भेद संत्रास के हो दमन
दिन प्रतिदिन और फूले फले
आओ सबसे मिले हम गले ......
क्रांतियाँ जोड़कर हम शिखर पर चदें
भ्रांतियां तोड़कर हम निखरकर बढ़ें
प्रीति परतीति मन में पिरोते रहें
स्नेह समता समन्वय संजोते रहे
यूँ ही चलते रहे सिलसिले
आओ सबसे मिले हम गले ....
दौर अनचाहे विपरीत जो भी चले
बीज किन्तु विलग के ना कोई पले
यह हमें आस और पूर्ण विश्वास
जमीन एक और एक आकाश हो
खुशियाँ नितनव जहाँ हर पले
आओ सबसे मिले हम गले
नयना नीर भरे कोई फिर ना झरे
नाही कोई किसी को छले......
रचयिता.....
सुकवि बुधराम यादव
wah kya baat hai aapka blog dekha bhaut achha laga
ReplyDeleteaapki kavita bhi bhaut pasand aayi
likhte rahe
shrddha
क्रांतियाँ जोड़कर हम शिखर पर चदें
ReplyDeleteभ्रांतियां तोड़कर हम निखरकर बढ़ें
प्रीति परतीति मन में पिरोते रहें
स्नेह समता समन्वय संजोते रहे
यूँ ही चलते रहे सिलसिले
आओ सबसे मिले हम गले .बहुत अच्छा लिखा है। स्वागत है आपका
आनन्द आ गया.बहुत आभार.
ReplyDeleteआज परम्परा चालाकी की होती जा रही है | ईमानदारी मे चालाकी नही होती | आज आदमी बुद्धि का प्रयोग कर रहा है | आज संवेदना समाप्त हो गयी | यह परम्परा क्या समाज के हित मे है ? इसके दूरगामी परिणाम देखे तो यह हमारे हित मे नही है |
ReplyDeleteतो जिस समाज मे इस चालाकी की परम्परा हो जायेगी तो चालाक आदमियों की संख्या समाज मे ९९ प्रतिशत हो जायेगी और और सज्जनों की संख्या १ प्रतिशत होगी तो आप सोचिये की आप १ जगह धोखा दोगे और ९९ जगह धोखा खाओगे | यह फायदे का सोदा नही है | इससे सभी का नुकसान होता है |