नयना नीर भरे


नयना नीर भरे कोई फिर ना झरे
नाही कोई किसी को छले
आओ सबसे से मिले गले.....
इस चमन में अमन की वो गंगा बहे
जन गण सदियों सलामत औ चंगा रहे
धरा धर्ममय सर्वसम्पन्न जन
भूख भय भेद संत्रास के हो दमन
दिन प्रतिदिन और फूले फले
आओ सबसे मिले हम गले ......

क्रांतियाँ जोड़कर हम शिखर पर चदें
भ्रांतियां तोड़कर हम निखरकर बढ़ें
प्रीति परतीति मन में पिरोते रहें
स्नेह समता समन्वय संजोते रहे
यूँ ही चलते रहे सिलसिले
आओ सबसे मिले हम गले ....

दौर अनचाहे विपरीत जो भी चले
बीज किन्तु विलग के ना कोई पले
यह हमें आस और पूर्ण विश्वास
जमीन एक और एक आकाश हो
खुशियाँ नितनव जहाँ हर पले
आओ सबसे मिले हम गले

नयना नीर भरे कोई फिर ना झरे
नाही कोई किसी को छले......

रचयिता.....

सुकवि बुधराम यादव
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About समीर यादव

4 टिप्पणियाँ:

  1. wah kya baat hai aapka blog dekha bhaut achha laga
    aapki kavita bhi bhaut pasand aayi
    likhte rahe

    shrddha

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  2. क्रांतियाँ जोड़कर हम शिखर पर चदें
    भ्रांतियां तोड़कर हम निखरकर बढ़ें
    प्रीति परतीति मन में पिरोते रहें
    स्नेह समता समन्वय संजोते रहे
    यूँ ही चलते रहे सिलसिले
    आओ सबसे मिले हम गले .बहुत अच्छा लिखा है। स्वागत है आपका

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  3. आनन्द आ गया.बहुत आभार.

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  4. आज परम्परा चालाकी की होती जा रही है | ईमानदारी मे चालाकी नही होती | आज आदमी बुद्धि का प्रयोग कर रहा है | आज संवेदना समाप्त हो गयी | यह परम्परा क्या समाज के हित मे है ? इसके दूरगामी परिणाम देखे तो यह हमारे हित मे नही है |

    तो जिस समाज मे इस चालाकी की परम्परा हो जायेगी तो चालाक आदमियों की संख्या समाज मे ९९ प्रतिशत हो जायेगी और और सज्जनों की संख्या १ प्रतिशत होगी तो आप सोचिये की आप १ जगह धोखा दोगे और ९९ जगह धोखा खाओगे | यह फायदे का सोदा नही है | इससे सभी का नुकसान होता है |

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